मुसलमान के संस्कृत पढ़ाने पर बवाल क्यों, ये केवल ब्राह्मणों की भाषा थोड़े है - नज़रिया


राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान से पढ़ाई करने वाले फ़िरोज़ ख़ान ने शायद कभी कल्पना नहीं की होगी कि बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में उनकी नियुक्ति पर भारी बवाल खड़ा कर दिया जाएगा और छात्र ही उनके ख़िलाफ़ धरने पर बैठ जाएंगे.फ़िरोज़ उस सामासिक, साझा संस्कृति के नुमाइंदे हैं जिससे हमारे समाज का ताना-बाना निर्मित हुआ है और जिस पर हाल के वर्षों में लगातार चोटें होती रही हैं.संस्कृत में 'कूपमंडूकता' इसके लिए सही शब्द है जिसके नतीजे में व्याकरण और साहित्य की दृष्टि से महान यह भाषा एकांगिता, संकीर्णता और साम्प्रदायिकता का शिकार हुई है.हमने यह भुला दिया है कि संस्कृत को वैश्विक स्तर पर सम्मान जिन लोगों के कारण मिला, वे सिर्फ़ हिन्दू या ब्राह्मण नहीं थे, बल्कि जर्मन, अँग्रेज़ और मुस्लिम विद्वान थे. उन्होंने कई भाषाओं के बीच आवाजाही और संवाद के पुल तामीर किये.साल 1953-54 में मुहम्मद मुस्तफ़ा ख़ान 'मद्दाह' ने एक उर्दू-हिंदी शब्दकोश का सम्पादन किया था, जिसे उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने प्रकाशित किया था. सात दशक बाद भी उर्दू-हिंदी का इससे बेहतर शब्दकोश नहीं बना.


मद्दाह पालि, संस्कृत, अरबी, फारसी, तुर्की और हिंदी के जानकार थे और इन सभी भाषाओं के हिंदीकोश तैयार कर चुके थे. उनके एक हिन्दू दोस्त ने आग्रह किया कि हिंदी-उर्दू कोश के बाद उन्हें उर्दू-हिंदी कोश भी तैयार करना चाहिए क्योंकि 'उर्दू साहित्य का बड़ी तेज़ी से हिंदी लिप्यान्तरण हो रहा है.'ग़ौरतलब है कि मद्दाह का यह कोश डॉ. सम्पूर्णानन्द को समर्पित है जो राजनेता होने के अलावा संस्कृत के भी विद्वान थे और जिनके नाम पर बनारस में सम्पूर्णानन्द संस्कृत विद्यापीठ बना है.


यह सिर्फ़ एक उदाहरण है. दरअसल, हमारे देश में भाषा और विद्वता के क्षेत्र में संस्कृत, फ़ारसी, हिंदी, उर्दू के मेलजोल और विनिमय की लम्बी परंपरा रही है जिससे सामासिकता के विकास में मदद मिली. मुग़ल दौर में दारा शिकोह द्वारा उपनिषदों का अनुवाद उस एकता का अहम पड़ाव था.


हिन्दी के हाथी पर सवार अंग्रेज़ी का महावत


संस्कृत से आई है मुसलमानों की 'नमाज़'